भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अध्याय १५ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<poem>
 
<poem>
 
पञ्चदशोअध्याय
 
पञ्चदशोअध्याय
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
 +
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५- १॥
 +
</span>
 
अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल,
 
अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल,
 
शाखा नीचे जड़ ऊपर है.
 
शाखा नीचे जड़ ऊपर है.
 
हैं वेद पात , जो भेद गुनै,
 
हैं वेद पात , जो भेद गुनै,
 
वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है
 
वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
 +
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥
 +
</span>
 
अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों,
 
अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों,
 
बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं,
 
बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं,
 
नर योनी, करम विधान यथा ,
 
नर योनी, करम विधान यथा ,
 
जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी
 
जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
 +
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥
 +
</span>
 
आद्यंत विहीना ,  ये  वृक्ष घनयो,
 
आद्यंत विहीना ,  ये  वृक्ष घनयो,
 
जस होत कथित तस होत नहीं,
 
जस होत कथित तस होत नहीं,
 
दृढ़ मूल अहंता की  मोह जड़न
 
दृढ़ मूल अहंता की  मोह जड़न
 
कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं
 
कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
 +
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥
 +
</span>
 
मानुष ढूंढ वही  प्रभु  ठौर जो ,
 
मानुष ढूंढ वही  प्रभु  ठौर जो ,
 
जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं,
 
जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं,
 
ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन,
 
ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन,
 
की सरनागति,  भावै मही
 
की सरनागति,  भावै मही
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
 +
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥
 +
</span>
 
जिन मोह व् मान भी शेष भयौ ,
 
जिन मोह व् मान भी शेष भयौ ,
 
अध्यातमन चाह विशेष भयौ.
 
अध्यातमन चाह विशेष भयौ.
 
सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ.
 
सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ.
 
तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ
 
तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
 +
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५- ६॥
 +
</span>
 
सूरज ना ही मयंक , अनल करै ,
 
सूरज ना ही मयंक , अनल करै ,
 
कोऊ प्रकास , परम पद कौ,
 
कोऊ प्रकास , परम पद कौ,
 
जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ,
 
जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ,
 
वही धाम परम पद अनहद कौ
 
वही धाम परम पद अनहद कौ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
 +
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥
 +
</span>
 
यहि देह में देहिन अंश मेरौ,
 
यहि देह में देहिन अंश मेरौ,
 
त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ.
 
त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ.
 
मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं,
 
मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं,
 
एकमेव सनातन अंश मेरौ
 
एकमेव सनातन अंश मेरौ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
 +
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥
 +
</span>
 
यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि ,
 
यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि ,
 
जस वायु में गंध समावत है,
 
जस वायु में गंध समावत है,
 
तस देहिन देह के भावन कौ ,
 
तस देहिन देह के भावन कौ ,
 
नव देह में हूँ लइ जावत है
 
नव देह में हूँ लइ जावत है
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
 +
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥१५- ९॥
 +
</span>
 
यहि देहिन चक्षुन,  श्रोत्र,  त्वचा,
 
यहि देहिन चक्षुन,  श्रोत्र,  त्वचा,
 
रसना मन प्राण सहारण सों,
 
रसना मन प्राण सहारण सों,
 
यहि सेवत सगरे विषयन कौ ,
 
यहि सेवत सगरे विषयन कौ ,
 
इन इन्द्रिन के आराधन सों
 
इन इन्द्रिन के आराधन सों
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
 +
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥
 +
</span>
 
न काल प्रयाण , न जीवन में,
 
न काल प्रयाण , न जीवन में,
 
न विषयन कौ भोगत क्षण में,
 
न विषयन कौ भोगत क्षण में,

02:17, 11 जनवरी 2010 का अवतरण

पञ्चदशोअध्याय

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५- १॥

अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल,
शाखा नीचे जड़ ऊपर है.
हैं वेद पात , जो भेद गुनै,
वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥

अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों,
बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं,
नर योनी, करम विधान यथा ,
जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥

आद्यंत विहीना , ये वृक्ष घनयो,
जस होत कथित तस होत नहीं,
दृढ़ मूल अहंता की मोह जड़न
कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥

मानुष ढूंढ वही प्रभु ठौर जो ,
जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं,
ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन,
की सरनागति, भावै मही

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥

जिन मोह व् मान भी शेष भयौ ,
अध्यातमन चाह विशेष भयौ.
सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ.
तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५- ६॥

सूरज ना ही मयंक , अनल करै ,
कोऊ प्रकास , परम पद कौ,
जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ,
वही धाम परम पद अनहद कौ

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥

यहि देह में देहिन अंश मेरौ,
त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ.
मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं,
एकमेव सनातन अंश मेरौ

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥

यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि ,
जस वायु में गंध समावत है,
तस देहिन देह के भावन कौ ,
नव देह में हूँ लइ जावत है

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥१५- ९॥

यहि देहिन चक्षुन, श्रोत्र, त्वचा,
रसना मन प्राण सहारण सों,
यहि सेवत सगरे विषयन कौ ,
इन इन्द्रिन के आराधन सों

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥

न काल प्रयाण , न जीवन में,
न विषयन कौ भोगत क्षण में,
न जाने मूढ़ कदापि कोऊ ,
लखि ज्ञान नयन सों हिय मन में