भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अध्याय १६ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 7 जुलाई 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥१६- १३॥

आज यहि उपलब्ध कियौ ,
और ऐसो मनोरथ सिद्ध कियौ.
धन मैंने एतौ पाय लियौ,
पुनि और की आस आबद्ध कियौ

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥१६- १४॥

मैं रिपुअन कौ मारन हारो,
बहु अन्य रिपुन कौ हन्ता मैं.
मैं सिद्धि श्री भोगन हारो,
बलवान सुखी और कन्ता मैं

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥१६- १५॥

धनवान कुटुंब कौ स्वामी महा,
मोरे सम दूसर कौन कहाँ?
तप दान यज्ञ कौ कर्ता में.
अज्ञान सों मोहित होत यहाँ

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥१६- १६॥

बहु भांति भ्रमित जिन चित्त भयौ,
बहु भोगन विषयन लिप्त भयौ.
मद मोह अति आसक्त भयौ.
बिनु संशय नर्क गयौ ही गयौ

आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥१६- १७॥

धन मान के मद सों मुक्त भयौ ,
अति नीकौ आपु कौ आपु कह्यौ .
बिनु शास्त्र विधि के यज्ञ करयौ,
पाखण्ड करयौ , तिन पाप करयौ

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥१६- १८॥

बल कामहिं क्रोध घमंड अहम् ,
रागादि बसो जिन प्राणिन में
मद- मोह ग्रसित, पर निंदक कौ,
नाहीं ब्रह्म दिखत प्रति प्रानिन में

तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥१६- १९॥

जिन द्वेशन क्रोध विकार धरै,
उन क्रूर नराधम प्रानिन कौ,
गति देत अधम पुनि-पुनि उनकौ,
जग माहीं आसुरी योनिन कौ

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥१६- २०॥

जिन आसुरी योनि मिलै पार्थ!
तिन मोहे कबहूँ नहीं पावति है,
अति हेय अधोगति पाय के ये ,
अति घोर नरक माहीं जावति हैं

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥१६- २१॥

सुनि लोभ, क्रोध, और काम यही,
त्रै द्वार नरक के पार्थ ! सुनौ.
इनसों ही अधोगति होवत है,
सों तत्व समाय , यथार्थ गुनौ

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥१६- २२॥

इन तीनों नरक के द्वारन सों,
हे अर्जुन! जो नर मुक्त भयौ,
शुभ करमन सों गति पाय परम,
वही मोसों ही संयुक्त भयौ

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥१६- २३॥

जिन त्याग दई विधि शास्त्रन की,
व्यवहार सदा मन भायौ करयौ.
सुख सिद्धिं ताकी होत नहीं,
भाव सिन्धु सों वे जन नाहीं तरयों

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥१६- २४॥

सुन करम-अकर्म व्यवस्था में,
एकमेव ही शास्त्र प्रमान बनयौ,
यहि जानि के शास्त्र कथित विधि सों,
करौ करम, यथा कल्यान, कहयौ