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अध्याय २ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

अथ द्वितीय अध्यायः

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥२- १॥

संजय उवाच
अति व्यथित विमोहित चित्त दशा,
नयनन सों झरती निर्झरनी.
अवलोकि द्रवित करुनाकर ने,
यही वचन उवाच्यो शुभ करनी

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥२- २॥

श्री कृष्ण उवाच
सुन मोह ग्रसित अज्ञान मना,
क्यों अर्जुन तेरों चित्त भयौ .
यहि काज न श्रेय जनान करें .
न स्वर्ग , न कीरति युक्त भयौ

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२- ३॥

यहि घोर क्लैव्यता त्याग पार्थ,
गांडीव उठा , उठिजा , उठिजा
तजि हेय, हीय को हीन भाव,
रन भूमि हेतु तत्पर , डटी जा

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥२- ४॥

किमि भीषम, द्रोन सखा जन सों,
हौं समर भूमि संघर्ष करुँ.
अरिसूदन पूजन जोगन कौ,
अरि बानन सौं अपकर्ष करूँ

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥२- ५॥

अस राज, राज सों हे माधव!
भिक्षा को अन्न रुचिर लागै.
रिसि रह्यो रुधिर गुरु परिजन को,
कैसे अस राज रुचिर लागै

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥२- ६॥

रन श्रेय कि हेय न जानती हूँ ,
भावी डर विजय पराजय कौ .
जिन धार्तराष्ट्र हित जियौ चाहें
नहिं आत्म रूप कुल धारय कौ

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥२- ७॥

नहिं जानति नैकहूँ धरम ज्ञान,
जो श्रेय कहौ माधव मोंसों,
सरनागत शिष्य विमोहित चित्त सों,
ज्ञान कौ चाहत हूँ तोसों

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥२- ८॥

धन श्री निष्कंटक देवन हू पै,
राज मिलै हम का करिबौ.
मम सोक सों सूखत इन्द्रिन तो,
अस राज, राज हम का करिबौ

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥२- ९॥

संजय उवाच
अथ गुडाकेश, गोविन्दम सों,
यहि वचन दुखित मन बोलत हैं.
मैं जुद्ध कदापि नहिं करिबौ,
अस बोलि के मौन ही डोलत हैं

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥२- १०॥

शोकाकुल अर्जुन मोह ग्रसित,
मोहित माया सों डोलत हैं.
कुरु-पांडव सेनन बीच खड्यो,
विहँसती माधव अस बोलत हैं

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥२- ११॥

श्री भगवानुवाच
हे अर्जुन! काहे सोक करै,
ज्ञानिन कौ नैकु न शोभत है.
जिन प्राण गए, कि रहे ज्ञानी ,
नाहीं काहू कौ रोवत है

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥२- १२॥

केहि कालहिं राजा नाहिं हत्यो ,
मैं नाहिं तू नाहिं हत्यो.
मैं तू सब कालहिं मांहीं हत्यो.
अति आगम आदि में नित्य हत्यो

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥२- १३॥

यहि देह में देहिन की जैसे
कौमार्य, ज़रा, यौवन आवै.
तस देहांतर नव देह मिलै,
ज्ञानी कौ मोह नाहीं छावै

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥२- १४॥

कौन्तेय! मरम की बात सुनौ,
इन्द्रियन के सुख छन भंगुर हैं.
सरदी-गरमी सुख-दुःख इन्द्रिन,
विषयन के भोग सों अंकुर हैं

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥२- १५॥

हे पुरुषोत्तम अर्जुन! जेहि कौ
सगरे सुख-दुःख ही सम लागैं.
निर्वान जोग वे धीर जना,
कृष्णहूँ अस प्राणी परम लागै

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥२- १६॥

सत कोऊ असत कौ होत कहाँ ,
और सत कौ अभाव कहाँ कत है.
ज्ञानी जन दोनन कौ जानै,
सत होत परम, सत ही सत है

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥२- १७॥

अक्षर अविनासी जानि ताहि ,
जासौ जग सगरौ व्यापि रहयो.
नाहीं समरथ कोऊ बिनाशन कौ,
अविनासी तौ आपु सों आपु रहयो

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥२- १८॥

नित सत्य सनातन आत्मा की,
तौ देह सबहीं मरिहैं, मरिहैं ,
अथ अर्जुन श्रेय भरतवंशी!
करि जुद्ध जे आतमा ना मरिहैं

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥२- १९॥

यहि आतमा नाहीं मरन धरमा,
केहू कालहिं नाहीं विनासति है.
ना मारै, मरै, मरवाय सकै,
अथ समुझति, नाहीं समुझति है

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२- २०॥

यहि आतमा नित्य अजन्मा है,
यहि नित सत सत्य सनातन है.
न मारै , मरै मरवाय सकै.
केहू कालहिं नाहीं बिनासत है

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥२- २१॥

यहि आत्मा नित्य अजन्मा कौ,
अविनासी रूप जो जानि सकै.
काहू को, कैसे केहि विधि सों,
हे अर्जुन! सुनि मरवाय सकै

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२- २२॥

जस मानुष वस्त्र नयौ,
बिलगाय पुरातन वस्त्रन कौ.
तस देही कौ नव देह मिलै
अलगाय पुरातन देहन कौ

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२- २३॥

नाहीं काटि सकै शस्त्रादि कोऊ
नाहीं आतमा आगि जलाय सकै.
नाहीं जल गीलौ करि ताय सकै.
नाहीं वायु भी नैकु सुखाय सकै

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२- २४॥

अच्छेद्य, अक्लेद्य, अशोष्य तथा,
अदाह्य भी आतमा होत मही.
व्यापक, अज, अक्षर, नित्य , नित्य
एकमेव सनातन होत यही

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२- २५॥

इन्द्रिन कौ विषय, न ही मन कौ ,
यहि आतमा तौ अविकारी है,
सत रूप सरूप को जानि सखा,
काहै को शोक विकारी है

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२- २६॥

नित जनम मरण मय मान यदि,
तबहूँ तोहे सोक न सोभत है.
तुम्हरे मत सों जो आज मरयो,
पुनि हुइहै जनम क्यों रोवत है?

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२- २७॥

जेहि लेत जनम सोई होत मरन,
यहि धरम ही सत्य सनातन है.
जेहि होत मरन, सोई लेत जनम,
यहि काल कौ चक्र पुरातन है

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२- २८॥

सुन, पूर्व जनम, उपरांत मरन
बिनु देह के प्रानी होत सभी.
धरि मध्य काल देहीं देहन,
अथ सोक की बात न होत कभी

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥२- २९॥

अचरज की नाईं आतमा कौ
कोऊ बिरलौ मनीषी जानत है.
कोऊ बिरलौ ही सुनि पावत है
कोऊ बिरलौ ही कहि पावत है

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥२- ३०॥

सबहीं के शरीरन मांही सुनौ,
यहि आतमा होत अवध्य सदा.
सब प्रानिन के हित पार्थ सुनौ ,
तू सोक करन के न जोग यथा

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥२- ३१॥

यहि धरम जुद्ध सों श्रेय कोऊ,
नाहीं अन्य करम कोऊ क्षत्रिन कौ.
अवलोकि क्षत्र कौ धरम नैकु ,
नाहीं कारन किंचित डर वन कौ

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥२- ३२॥

अथ स्वर्ग लोक के पार्थ सुनौ ,
पट आपुहि आप खुले मिलिहैं ,
अस भाग विरल जो क्षत्रिन कौ ,
तोहे सहजहिं जुधन सों मिलिहैं

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥२- ३३॥

रन धरम युक्त कुरुक्षेत्रहीं को,
यदि अर्जुन तू नाहीं करिहै.
तब आपुनि कीरति धरम गंवाय
परन्तप पापन माँ परिहैं

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥२- ३४॥

हे अर्जुन! तोरी अपकीरति ,
बहु काल सबहीं कहिहैं - कहिहैं,
अपकीरति हेय मरन सों भी ,
किमि मान पुरुष सहिहैं- सहिहैं

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥२- ३५॥

अब नैकहूँ तुच्छ भयौ अर्जुन!
तौ लोग महारथी का कहिहैं ?
भय कारन यदि उपराम भयौ ,
तौ तोरे परिजन का कहिहैं?

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥२- ३६॥

बहु बैरी तोरी समरथ की,
करिहैं निंदा का शोभत है ?
नाहीं कहवन जोग वचन कहिहैं
दुःख तासों घनयो का होवत है