"अध्याय ९ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। | ||
+ | प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥९- १८॥ | ||
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कर्ता , भर्ता , हर्ता शरणम् | कर्ता , भर्ता , हर्ता शरणम् | ||
उत्पत्ति प्रलय सुख राशी हूँ. | उत्पत्ति प्रलय सुख राशी हूँ. | ||
उपकार करत बिनु बदले अस , | उपकार करत बिनु बदले अस , | ||
आधार अगम अविनाशी हूँ | आधार अगम अविनाशी हूँ | ||
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+ | तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। | ||
+ | अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥९- १९॥ | ||
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रवि रूप तकत मैं वर्षा कौ, | रवि रूप तकत मैं वर्षा कौ, | ||
आकर्षित करी बरसावत हूँ. | आकर्षित करी बरसावत हूँ. | ||
सत और असत अमृत -मृत्यु | सत और असत अमृत -मृत्यु | ||
सर्वस्व मैं पार्थ बतावत हूँ | सर्वस्व मैं पार्थ बतावत हूँ | ||
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+ | त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। | ||
+ | ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥९- २०॥ | ||
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कर पान अमिय तीनहूँ विद्या , | कर पान अमिय तीनहूँ विद्या , | ||
नर पाप रहित हुइ जात महे, | नर पाप रहित हुइ जात महे, | ||
बहु काल इन्द्र के लोक रहे, | बहु काल इन्द्र के लोक रहे, | ||
बहु भोग अलौकिक भोग गहें | बहु भोग अलौकिक भोग गहें | ||
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+ | ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। | ||
+ | एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥९- २१॥ | ||
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जब पुण्य नसावत अस जन के , | जब पुण्य नसावत अस जन के , | ||
पुनि लोक मरण के आवत हैं, | पुनि लोक मरण के आवत हैं, | ||
जिन कर्म सकाम की चाह घनी, | जिन कर्म सकाम की चाह घनी, | ||
वे पुनि-पुनि आवत-जावत हैं | वे पुनि-पुनि आवत-जावत हैं | ||
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+ | अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। | ||
+ | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९- २२॥ | ||
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जेहि भक्त अनन्य हो मोहे भजे, | जेहि भक्त अनन्य हो मोहे भजे, | ||
फल करमन कौ जिन मोह तजे | फल करमन कौ जिन मोह तजे | ||
अस भक्त को योग व् क्षेम वहन, | अस भक्त को योग व् क्षेम वहन, | ||
मैं लेत स्वयं, मोहे न बिसरे | मैं लेत स्वयं, मोहे न बिसरे | ||
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+ | येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। | ||
+ | तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥९- २३॥ | ||
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जिन देवन अन्य कौ पूजत हैं, | जिन देवन अन्य कौ पूजत हैं, | ||
अस भांति मोहे ही पूजत हैं, | अस भांति मोहे ही पूजत हैं, | ||
बिनु ज्ञान विधान विधि सों वे, | बिनु ज्ञान विधान विधि सों वे, | ||
विधि हीन मोहे ही पूजत हैं | विधि हीन मोहे ही पूजत हैं | ||
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+ | अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। | ||
+ | न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥९- २४॥ | ||
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सुन अर्जुन मैं ही हूँ क्यों कि | सुन अर्जुन मैं ही हूँ क्यों कि | ||
एकमेव ईशानंम यज्ञन कौ. | एकमेव ईशानंम यज्ञन कौ. | ||
जिन तत्त्व सों मोहे न जानि सकै | जिन तत्त्व सों मोहे न जानि सकै | ||
पुनि पावति जन्मं -मरणं कौ | पुनि पावति जन्मं -मरणं कौ | ||
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+ | यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः। | ||
+ | भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥९- २५॥ | ||
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जिन पूजै देवन देव मिलें | जिन पूजै देवन देव मिलें | ||
पितरन कौ पूजे पितर मिलै, | पितरन कौ पूजे पितर मिलै, | ||
जिन पूजें भूतन भूत मिलें, | जिन पूजें भूतन भूत मिलें, | ||
मेरौ भक्त ही मोसों प्रवर मिलै | मेरौ भक्त ही मोसों प्रवर मिलै | ||
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+ | पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। | ||
+ | तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९- २६॥ | ||
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जेहि पात, सुमन, फल, जल मोहे | जेहि पात, सुमन, फल, जल मोहे | ||
करै प्रेम सों अर्पित भक्त कोई. | करै प्रेम सों अर्पित भक्त कोई. | ||
साकार प्रगट, अति प्रीति सहित, | साकार प्रगट, अति प्रीति सहित, | ||
मैं खावत हूँ सोई-सोई | मैं खावत हूँ सोई-सोई | ||
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+ | यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। | ||
+ | यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९- २७॥ | ||
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ताप दान धरम ,शुभ कर्म हवन. | ताप दान धरम ,शुभ कर्म हवन. | ||
जो खावै जो कछु कर्म किया. | जो खावै जो कछु कर्म किया. | ||
कौन्तेय मोहे अर्पित करिकै | कौन्तेय मोहे अर्पित करिकै | ||
कर्तापन नैकु न होत हिया | कर्तापन नैकु न होत हिया | ||
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+ | शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। | ||
+ | संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९- २८॥ | ||
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मन योगमयी अभ्यास वृति | मन योगमयी अभ्यास वृति | ||
और मोहे अर्पित करमन सों. | और मोहे अर्पित करमन सों. | ||
मुझ माहीं समाय के मुक्त भयौ | मुझ माहीं समाय के मुक्त भयौ | ||
शुभ कर्म अशुभ फल बंधन सों | शुभ कर्म अशुभ फल बंधन सों | ||
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+ | समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। | ||
+ | ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९- २९॥ | ||
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सम भाव सों व्यापक प्राणी में | सम भाव सों व्यापक प्राणी में | ||
अथ मोरो अप्रिय न प्रिय कोई. | अथ मोरो अप्रिय न प्रिय कोई. | ||
पर भक्त जो मोहे भजे हिय सों | पर भक्त जो मोहे भजे हिय सों | ||
अस मेरौ, में उनमें होई | अस मेरौ, में उनमें होई | ||
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+ | अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। | ||
+ | साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९- ३०॥ | ||
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कोऊ अतिशय होत दुराचारी | कोऊ अतिशय होत दुराचारी | ||
अंतर्मन सों यदि मोहे भजे | अंतर्मन सों यदि मोहे भजे | ||
मानहुं तेहि साधू जस ही यदि, | मानहुं तेहि साधू जस ही यदि, | ||
दृढ़ चित्त मना सों विकार तजे | दृढ़ चित्त मना सों विकार तजे | ||
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+ | क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। | ||
+ | कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९- ३१॥ | ||
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वही अधम आचरण युक्त जना | वही अधम आचरण युक्त जना | ||
सत करम -धरम मय होवत है,. | सत करम -धरम मय होवत है,. | ||
सत शांति सनातन पाय यथा | सत शांति सनातन पाय यथा | ||
फिर नाश कबहूँ नहीं होवत है | फिर नाश कबहूँ नहीं होवत है | ||
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+ | मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। | ||
+ | स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥९- ३२॥ | ||
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हे अर्जुन!नारी वैश्य शूद्र | हे अर्जुन!नारी वैश्य शूद्र | ||
बहु पाप करम कर्ता कोई | बहु पाप करम कर्ता कोई | ||
शरणागत मोरी होत यदि, | शरणागत मोरी होत यदि, | ||
गति पाय परम मुक्ता सोई | गति पाय परम मुक्ता सोई | ||
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+ | किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। | ||
+ | अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥९- ३३॥ | ||
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ऋषिराज भगत जन ब्राह्मण के, | ऋषिराज भगत जन ब्राह्मण के, | ||
और पुण्य जनों के क्या कहना. | और पुण्य जनों के क्या कहना. | ||
जो त्याग सकल क्षण भंगुर जग, | जो त्याग सकल क्षण भंगुर जग, | ||
भजे मोहे, मोरे संग ही रहना | भजे मोहे, मोरे संग ही रहना | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। | ||
+ | मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९- ३४॥ | ||
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अर्पित तन-धन विह्वल मन सों, | अर्पित तन-धन विह्वल मन सों, | ||
अति नेह अनन्य जो प्राणी करै. | अति नेह अनन्य जो प्राणी करै. |
00:55, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥९- १८॥
कर्ता , भर्ता , हर्ता शरणम्
उत्पत्ति प्रलय सुख राशी हूँ.
उपकार करत बिनु बदले अस ,
आधार अगम अविनाशी हूँ
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥९- १९॥
रवि रूप तकत मैं वर्षा कौ,
आकर्षित करी बरसावत हूँ.
सत और असत अमृत -मृत्यु
सर्वस्व मैं पार्थ बतावत हूँ
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥९- २०॥
कर पान अमिय तीनहूँ विद्या ,
नर पाप रहित हुइ जात महे,
बहु काल इन्द्र के लोक रहे,
बहु भोग अलौकिक भोग गहें
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥९- २१॥
जब पुण्य नसावत अस जन के ,
पुनि लोक मरण के आवत हैं,
जिन कर्म सकाम की चाह घनी,
वे पुनि-पुनि आवत-जावत हैं
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९- २२॥
जेहि भक्त अनन्य हो मोहे भजे,
फल करमन कौ जिन मोह तजे
अस भक्त को योग व् क्षेम वहन,
मैं लेत स्वयं, मोहे न बिसरे
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥९- २३॥
जिन देवन अन्य कौ पूजत हैं,
अस भांति मोहे ही पूजत हैं,
बिनु ज्ञान विधान विधि सों वे,
विधि हीन मोहे ही पूजत हैं
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥९- २४॥
सुन अर्जुन मैं ही हूँ क्यों कि
एकमेव ईशानंम यज्ञन कौ.
जिन तत्त्व सों मोहे न जानि सकै
पुनि पावति जन्मं -मरणं कौ
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥९- २५॥
जिन पूजै देवन देव मिलें
पितरन कौ पूजे पितर मिलै,
जिन पूजें भूतन भूत मिलें,
मेरौ भक्त ही मोसों प्रवर मिलै
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९- २६॥
जेहि पात, सुमन, फल, जल मोहे
करै प्रेम सों अर्पित भक्त कोई.
साकार प्रगट, अति प्रीति सहित,
मैं खावत हूँ सोई-सोई
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९- २७॥
ताप दान धरम ,शुभ कर्म हवन.
जो खावै जो कछु कर्म किया.
कौन्तेय मोहे अर्पित करिकै
कर्तापन नैकु न होत हिया
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९- २८॥
मन योगमयी अभ्यास वृति
और मोहे अर्पित करमन सों.
मुझ माहीं समाय के मुक्त भयौ
शुभ कर्म अशुभ फल बंधन सों
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९- २९॥
सम भाव सों व्यापक प्राणी में
अथ मोरो अप्रिय न प्रिय कोई.
पर भक्त जो मोहे भजे हिय सों
अस मेरौ, में उनमें होई
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९- ३०॥
कोऊ अतिशय होत दुराचारी
अंतर्मन सों यदि मोहे भजे
मानहुं तेहि साधू जस ही यदि,
दृढ़ चित्त मना सों विकार तजे
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९- ३१॥
वही अधम आचरण युक्त जना
सत करम -धरम मय होवत है,.
सत शांति सनातन पाय यथा
फिर नाश कबहूँ नहीं होवत है
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥९- ३२॥
हे अर्जुन!नारी वैश्य शूद्र
बहु पाप करम कर्ता कोई
शरणागत मोरी होत यदि,
गति पाय परम मुक्ता सोई
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥९- ३३॥
ऋषिराज भगत जन ब्राह्मण के,
और पुण्य जनों के क्या कहना.
जो त्याग सकल क्षण भंगुर जग,
भजे मोहे, मोरे संग ही रहना
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९- ३४॥
अर्पित तन-धन विह्वल मन सों,
अति नेह अनन्य जो प्राणी करै.
शरणागत होत समर्पित जन ,
मुझ मांहीं विलीन हों प्राणी तरै