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अनकही कहानी / महेश उपाध्याय

एक रंग को जीवन कहना
ग़लत बयानी है
जीवन रंग-बिरंगा
इसकी साँस रवानी है

मरुथल से हरियाली तक
झरने से सागर तक
इसके ही पन्ने बिखरे हैं
घर से बाहर तक

सौ-सौ बार कही फिर भी
अनकही कहानी है

कभी बैठ जाता है
जीवन सूखे पत्तों में
कभी उबल पड़ता है
मज़बूरी में जत्थों में

धरती से आकाश नापता
कितना पानी है ?