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अनगिनित आ गए शरण में / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

अनगिनित आ गए शरण में जन, जननि,--
सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि !

      स्नेह से पंक-उर
       हुए पंकज मधुर,
       ऊर्ध्व-दृग गगन में
       देखते मुक्ति-मणि !

      बीत रे गई निशि,
      देश लख हँसी दिशि,
      अखिल के कण्ठ की
       उठी आनन्द-ध्वनि !