भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनहद मन म्हारो रमी रयो / निमाड़ी

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:33, 19 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKLokRachna |रचनाकार=अज्ञात }} {{KKLokGeetBhaashaSoochi |भाषा=निमाड़ी }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

    अनहद मन म्हारो रमी रयो,
    धुन लागी रे प्यारी

(१) उस दरियाव की मछली,
    आरे इस नाले में आई
    नाले का पानी तोकड़ा
    दरिया न समानी...
    अनहद...

(२) वस्तु घणी रे बर्तन छोटा,
    आरे कहो कैसे समाणी
    घर मे धरु तो बर्तन फुटे
    बाहेर भरमाणी...
    अनहद...

(३) फल मीठा रे तरुवर ऊँचा,
    आरे कहो कैसे रे तोड़े
    अनभेदी ऊपर चड़े
    गीरे धरती के माही...
    अनहद...

(४) बृह्मगीर बृह्मरुप है,
    आरे बृह्म के हो माही
    बृह्म में बृह्म मिल गये
    बृह्म में समाये...
    अनहद...