भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अनहद सुख / शांति सुमन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:33, 3 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शांति सुमन |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> यह जो चमक रहा है दि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह जो चमक रहा है दिन में
अपना ही घर है

छत के ऊपर कटी पतंगें
दौड़ रहे हैं बच्चे
सूखे कपड़ों को विलगाकर
खेल रहे हैं कंचे

यह जो बेच रहा है टिन में
गुड़ औ’ शक्कर है ।

एक-एक रोटी का टुकड़ा
एक-एक मग पानी
फिर भी रोती नहीं सविता
नानी की हैरानी

यह जो सोच रहा है मन में
असली फक्कड़ है ।

नंगे पाँव चले बतियाने
इस टोले, उस टोले
कीचड़ को ही बना आइना
उझक-उझक डोले

यह अनहद सुख जागा जिनमें
वह तो ईश्वर है ।