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अनुगुंजन / कविता भट्ट

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12
नहीं विलग
तुम से उद्भाषित
रमी तुममें
13
न कोई धर्म
है सदैव पूजित
निष्काम कर्म
14
अनुगुंजन-
सृष्टि नित करती
हरि पूजन
15
गिरि उन्मुख
नित चुम्बन करें
नभ के मुख
16
हास जगाती
प्रकृति विदूषिका
मन रमाती
17
तुम संगीत
मैं लयबद्ध गीत
ओ मनमीत !
18
है सुरापान-
अधर- प्याली पर
धरे चुम्बन .
19
कभी तो झुको
अन्यथा टूटोगे ही
तुम्हें गर्व क्यों
20
नम्र धरा सी
ओ रवि तेरा नित
परिभ्रमण
21
चहुँ दिशि में
गाये-मुस्काये नित
प्रेम विजित
22
सपने बाँचू
नित प्रेम से लिखी
पाती मन की