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अन्ततः / कुमार वीरेन्द्र

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वे धरती पर जनमे हैं
गहरी होंगी जड़ें, फूलेंगे-फलेंगे, होंगे छायादार
उनके हिस्से की धूप, ख़ाली जगहों के लिए भी होगी, राह में नदी होगी तो सभ्यताओं
का इतिहास जानेंगे, पहाड़-जँगल मिलेंगे आदिमानवों का लोक गाएँगे, अपने खेतों से
प्यार करेंगे, उससे बेदख़ल होने की पीड़ा को रक्त में शामिल कर
लेंगे, वे सपनों को बयारों की तरह बाँचेंगे, आदमी
को आदमी होने में देखेंगे, इस
विज्ञान के साथ

साँसें लेंगे कि भरम और मिथक में बहुत का अन्तर नहीं होता, और यह
भी एक बड़ी राजनीतिक साज़िश कि
मुर्दे भविष्य रचते हैं

वे भले किसी प्रदेश के
नागरिक होंगे, लेकिन उनके सफ़र में अयोध्या भी
होगा मुजफ़्फ़रनगर भी, दिल्ली भी होगी जिसकी चर्चा में यह बात अक्सर आएगी, कि वहाँ
राष्ट्र का एक ऐसा शासक था जो गाँधी के हत्यारे को राष्ट्रभक्त बतानेवालों को अपने बहुमत
से अलग नहीं करता था, बस दिल से माफ़ नहीं करने का बयान देता था
वह भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस के समान ही उनको भी
आज़ादी का महानायक मानता था जो
अँँग्रेज़ों के मुख़बिर थे

वे धरती पर जनमे हैं कि धरती पर ही जनम सकते हैं, बड़े होंगे
एक दिन कहेंगे, 'हम तब जनमे, जब
एक पड़ोसी से

युद्ध के लिए
हमारे पास वे तमाम सुविधाएँ थीं
जो होनी चाहिए, लेकिन गोरखपुर हो, मुजफ़्फ़रपुर, या कोई और, अस्पतालों में
नीन्द में हमेशा के लिए डूबते बच्चों के लिए, अन्ततः जिस नाख़ुदा पर भरोसा था
वह भी ऐसा, पता नहीं किस खोह समाया, देख सकता था न
सुन सकता था, पिताओं-माँओं का बादल की
तरह फटना, बन जाना अपने
ही जीवन में

प्रलय !'