क्यों खिझा रही है मुझको
चंचल तरंग - सी जूही ?
जगती के अणु, कण-कण में
दिखती विभु - सी बस तू ही ।।१५६।।
चंचले तरंगिणि गंगे !
कलकल निनाद को रोको
उर की विरहाग्नि प्रखर में
अब ईंधन और न झोको ।।१५७।।
झरझर आँसू झरते हैं
कृश तन कँपता थरथर है
व्याकुल वेदना बिलखती
ठोकर खाती दर - दर है ।।१५८।।
आया वसंत मैं क्या दूँ
यह तन-धरती है खाली
स्मिति - मदिरा से भर दो
मेरे ओठों की प्याली ।।१५९।।
सुनयन,नासा, मुख, अलकों
के सदृश वस्तु जब आती
चंचल चपला - सी स्मृति
तब दौड़ हृदय में जाती ।।१६०।।