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अन्हार / कुमार वीरेन्द्र

दिवाली के दिन
सब जलाते घर-आँगन, दुआर-बथान
पर दीये, एक बाबा ही, जो एक थरिया में, तेल-भरे पाँच दीये
ले निकलते घर से, और जो पुरनका इनार, पहले जलाते उसी
पर एक दीया, फिर सीधे बधार में पहुँच, खेत के
एक मेंड़ पर, फिर एक दीया बग़ीचे
में ठीक बीचोबीच

इसके बाद, एक
नदी किनारे, और अन्त में, एक वहाँ
जहाँ बेर-बबूर बीच, गाँव के मृत बच्चे गाड़े जाते, मैं जो बाबा
के सँगे-सँग, देेखता जब पँचदीये जला चुके, सुस्ताने कि खैनी
खाने के बहाने, कुछ देर बैठे रहते, पूछता, 'बाबा
इनार प दीया काहे जराते हो, पानी
देता है, इसलिए ?'

बाबा हाँ में मूँड़ी
हिलाते, फिर पूछता, 'खेत प दीया
काहे जराते हो, अनाज देता है, इसलिए ?' बाबा फिर हाँ में
हिलाते मूँड़ी, इसी तरह पूछता, 'बगीचे में दीया काहे जराते
हो, आम फरता है, इसलिए ? नदी किनारे दीया
काहे जराते हो, नहाते हैं हम
लोग, इसलिए ?'

फिर जब पूछता
'बाबा, ई बताओ, इहँवा दीया काहे
जराते हो, इहाँ तो इनारो नाहीं, खेतओ नाहीं, बगीचओ नाहीं
नदिओ नाहीं ?' बाबा, अब तक हाँ में, जो खाली मूँड़ी हिलाते
मौन तोड़ते कहा, 'हँ बेटा, इहँवा इनार, खेत, बगीचा
नदिओ नाहीं, तबहुँ जरा देता हूँ
एगो दीया, कि आज

अँजोर अन्हार न लगे...!'