भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनासँ घेराएल एकाकी ! / धीरेन्द्र

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:54, 23 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरेन्द्र |संग्रह=करूणा भरल ई गीत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनासँ घेराएल एकाकी !
अएला केओ ओ ई बनिकें
अएला केओ ई ओ बनिकें,
जीवन-क्रममे की कहु संगी,
अएला बहुतो एहिना छलिकें

जीवन संगिनि हम छी अहाँक,
हम बेटा तँ हम छी बेटी,
आएल पुनि फेरो एहनो क्षण,
सबहक नकाब उनटल ओहिना।

ओहो ! ई तँ थिक उएह मुखड़ा,
हमर मानस जनु सिहरि गेल,
केओ अप्पन अछि कहाँ हमर,
सभकेर सभ कि थिक ई अरे ! आन।

झन-झनन-झनन, खन-खनन-खनन
सुनबाकेर खाली प्रत्याशी।

सभ भ्रान्ति कि अबह तों झपदय,
ऋषि वाल्मीकिकेर हे करूणे !
चिर दिनकेर हम तँ छी विरही,
तों ही मदिरा, तों ही शाकी।

अस बुझि लेल, सभ झेलि लेल,
किछुओ ने आब रहले बाँकी ।
अपनासँ घेराएल एकाकी !