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अपना घर / प्रतिभा सक्सेना

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कहाँ है मेरा घर ?
जाना चाहती हूँ ,
रहना चाहती हूँ अब वहीं !
छोटी थी तो समझ में नहीं आता था ,
सुनती थी पराई अमानत हूँ,
अपने घर जाकर जो मन आये करना !
धीरे-धीरे समझ में आता गया
कि यह घर मेरा नहीं ।
पर फिर यहाँ जन्म क्यों लिया ?


बड़ी हुई - घर ढूँढा जाने लगा जहाँ भेज दी जाऊं ,
उऋण हो जायें ये लोग ,भार मुक्त !
चुपचाप चली आई नये लोगों में !
पर ये घर तो उनका था
जो लोग यहीं रहते आये थे !


 मैं नवागता ,
ढालती रही अपने को उनके हिसाब से !
नाम उनका ,धाम उनका ,
सारी पहचान उनकी !
बनाये रखने की जिम्मेदारी मेरी थी ,
निभाती रही !
निबटाते -निबटाते चुक गई ,
अब भी रह रही हूँ पराये घरों में ,
सबके अपने ढंग !


ढाल रही हूँ फिर अपने को
कितनी बार ,कितनी तरह !
अंतर्मन बार-बार पुकारता है -
'चलो अपने घर चलो !'
जनम-जनम से गुमनाम भटक रही हूं !
कहाँ है मेरा घर !