भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अपना घर : अपने लोग / गुलाब सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो ("अपना घर : अपने लोग / गुलाब सिंह" सुरक्षित कर दिया (‎[edit=sysop] (बेमियादी) ‎[move=sysop] (बेमियादी)))
 
(कोई अंतर नहीं)

17:29, 7 जनवरी 2014 के समय का अवतरण

यही अपने लोग
अपना यही घर है।

झुकी रह कर भी
थमी है,
देखिए, दीवार तक तो
संयमी है,

इनके गिरने का नहीं
उठने का डर है।

दाँत भी थे
अब बचे केवल मसूड़े
बाप पर बेटे गए
बूढ़े ही बूढ़े

पूछना बेकार
किसकी क्या उमर है?

बुझा करके आग
चूल्हे की
नाचती है भीड़
हिलती कमर-कूल्हे-सी

एक पूरी खुशी में
अब क्या कसर है?