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अपना प्यारा गाँव / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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बहुत याद आता है मुझको, अपना प्यारा गाँव
कैसे भूलूँ, भूल न पाऊँ अपना प्यारा गाँव।
नहर किनारे आम बगीचा,
हरी घास का बिछा गलीचा,
याद आ रहा अब भी मुझको,
वह प्यारा-सा गाँव,
जहाँ बैठ कर हम थे बहाते,
पत्ते-कागज की नाव। बहुत याद।

बरगद छैया, खेल खिलैया,
छुपा-छुपाई और गल बहियाँ,
खलिहानों में खेल कबड्डी,
मैं हूँ अव्वल, तू है फिसड्डी,
जो होता था सबसे छोटा,
उससे लेते दाँव... कैसे भूलूँ

देख के पीली-पीली सरसों,
मन हर्षित रहता था बरसों,
श्यामा, कजरी, भूरी गायें,
नाम पुकारत हुंकरत आएँ,
श्याम सलोनी संध्या आती,
पहन के पायल पाँव... कैसे भूलूँ

यहाँ न उगता सूरज दिखता,
और न दिखती संध्या लाली,
ऊँचे ऊँचे भवन शहर के,
लम्बी लम्बी सड़कें काली,
सिर्फ शोर है और शोर है
चका चौंध की काली छाँव।
 कैसे भूलूँ...