भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना महलिया से चलली सुदरी, ओसारा लागि ठाढ़ भेलै हो / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

गर्भ-जनित पीड़ा से बेचैन सुन्दरी मन में फिर से ऐसा काम नहीं करने का संकल्प करती है। वह प्राणरक्षा के लिए देवताओं की आराधना करती है तथा उस अवसर पर पति से भेंट होने पर उसकी मरम्मत तक करने को उतारू हो जाती है, लेकिन बाद में क्या वह अपने निश्चय पर अटल रह सकती है?

अपना महलिया से चलली सुंदरी, ओसारा लागि ठाढ़ भेल हो।
ललना, फेरू न करब ऐसन काम, दरद सेॅ बेआकुल भेली हो॥1॥
अबकी दरदिया हम न बचबै, गोसइयाँ गोर लागबै न हो।
ललना रे, फेरू न करब ऐसन काम, पलँगिा भिर न जायब हो॥2॥
येही जे अवसर में पिया के पैती, चाटक<ref>चाँटा, थप्पड़, तमाचा</ref> चुम्मा लेतिअइ हो।
ललना, रे जुलफी पकर झिकझोड़ती, पलँगिया भिर न आबे देती हो॥3॥

शब्दार्थ
<references/>