भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना मैं कह सकूँ जिसे दिलबर नहीं रहा / सुमन ढींगरा दुग्गल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:57, 23 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमन ढींगरा दुग्गल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपना मैं कह सकूँ जिसे दिलबर नहीं रहा
तन्हा सफर पे चल पड़ी रहबर नहीं रहा

तक्मील कर दे दर्द की रूदाद लफ्ज़ों से
ऐसा जहां में कोई सुखनवर नहीं रहा

बेहतर है उस को आज बुलंदी नसीब है
लेकिन अब उसका पाँव ज़मीं पर नहीं रहा

इस ज़िंदगी में ढूँढते हैं रोज़ ज़िंदगी
खुशियों का वो खज़ाना वो महवर नहीं रहा

जो ज़हन ओ दिल को मेरे मुअत्तर किया करे
गुलशन में तेरे अब वो गुलेतर नहीं रहा

बचपन की सेज पर थे खुशी के तमाम फूल
लेकिन जवाँ हुये तो वो बिस्तर नहीं रहा

ढूँढें कहाँ से अपनों की वो खोई कुर्बतें
खाली मकान रह गया अब घर नहीं रहा