Last modified on 11 फ़रवरी 2011, at 19:52

अपना ये सहज रंग / शकुन्त माथुर

मैंने कई बार सोचा है
ख़्वाहिशों की तरह पल-पल
बढ़ा जा सकता है
और बलों की तरह
उतनी ही आसानी से काटा भी
जा सकता है
जिसे मैं पहचानती हूँ
पहले से
और जिसे अंत तक न जानना चाहूँगी
क्यों कि उन पर अब
इमारतें खड़ी हो चुकी हैं

ज़हरीली मुस्कान मेम मुझे
अपना कँपता शरीर दिखता है
और संजीदगी में
मैंने कुछ बोया था,
हर अख़बार की ख़बर है
यहाँ हर चीज़ का सौदा होता है
और मैं बेख़बर इन बाज़ारों से
निश्चिंत तो अब बहुत कुछ हो चुका है
जो समयानुकूल है

अनिश्चय में रहने वाले की ट्रेजड़ी हो सकती है
मैंने छोटे पंजों के सामने
सिर झुकाया
स्पष्ट और साफ़ है उनके पंजे
कभी भी कोई बड़ा दिमाग
अपने समूचे शरीर को एक
जुनून में पेश कर सकता है,
ठुकराया है तुमने सदा अपने को
फ़ेल हो गए हो
और बाहर को अधिक समर्थ पाकर
भीतर घुसना चाहते हो

बिल्ली ने घर के कोने मेम
बच्चे दिए
मुझे उनकी आवाज़
निर्रथ नहीं लगी
जीने का अपना-अपना फ़ार्मूला
सबके हाथ में है

वैसे मेरे दोनों हाथ खाली हैं
मैं तुम्हें किसी को भी अपने में भर
अपना ये सहज रंग खोना नहीं चाहती ।