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अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता / शैलेन्द्र

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अपनी उल्फ़त पे ज़माने का न पहरा होता तो कितना अच्छा होता
प्यार की रात का कोई न सवेरा होता तो कितना अच्छा होता

पास रहकर भी बहुत दूर बहुत दूर रहे, एक बन्धन में बँधे फिर भी तो मज़बूर रहे
मेरी राहों में न उलझन का अँधेरा होता, तो कितना अच्छा होता

दिल मिले आँख मिली प्यार न मिलने पाए, बाग़बाँ कहता है दो फूल न खिलने पाएँ

अपनी मंज़िल को जो काँटों ने न घेरा होता, तो कितना अच्छा होता

अजब सुलगती हुई लकड़ियाँ हैं जग वाले, मिलें तो आग उगल दें कटें तो धुआँ करें
अपनी दुनिया में भी सुख चैन का फेरा होता तो कितना अच्छा होता

अपनी उल्फ़त पे ...

यह गीत शैलेन्द्र ने फ़िल्म 'ससुराल' (1961) के लिए लिखा था ।