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अपनी ज़मीन : अपनी छत / सुरेन्द्र डी सोनी

उम्र ढल रही है
रही है कम
कि एक घर तो बनाओ –
अपनी ज़मीन
अपनी छत होने की
बात ही कुछ और होती है...

तुम
शेष रही उम्र की बात करते हो दोस्त –
मैं जानता हूँ
कि एक उम्र के बाद
नहीं होती उम्र

हाँ, उम्र ढल रही है
ढलेगी ही...
रही है कम
रहेगी ही नहीं...

तुम कहते हो
कि बीतने से पहले
रीतने तक
एक घर तो बनाऊँ...

यह समझा हूँ
तुम्हारी बात का मतलब
कि कब तक
अपने बूते
सीधी रहेगी पीठ
कब तक
अपने बल पर
तना रहेगा यह सीना –
एक घर तो होना ही चाहिए...

काश !
मैं हँसने के लिए रहूँ
तुम्हारे इस भोलेपन पर...
जब
मेरी मरी हुई पीठ को
दिखाई जाएगी ज़मीन –

आह !
वह पीठ
जिसने ज़िन्दा रहते
सिर्फ़ तलवों को ही
ज़मीन दिखाने की कोशिश की

काश !
मैं हँसने के लिए रहूँ
तुम्हारे इस भोलेपन पर
जब
मेरे बुझे हुए सीने को
ढका जाएगा धुएँ की छत से –

आह !
जिस सीने ने
सुलगते दिनों में
धुएँ को उड़ाया
फूँक में सदा

जब तक
पीठ ज़िन्दा है...
सुलगता है सीना
जब तक...
मेरे तलवों को ही
देखने दो ज़मीन...
मेरी फूँक में ही
उड़ने दो धुएँ को...

नहीं बनाना घर मुझे..!