भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी लाश देखकर / उज्ज्वल भट्टाचार्य

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:27, 21 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उज्ज्वल भट्टाचार्य |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब वह सुबह घर से बाहर निकला तो दरवाज़े के बाहर उसकी लाश पड़ी थी। पन्नी से ढकी लाश, पास में एक पुलिसवाला खड़ा था। बताया, तीसरी मंज़िल की खिड़की से उसकी लाश नीचे गिर पड़ी थी। क्यों, उसने पूछा। पता नहीं, कंधे उचकाकर पुलिसवाले ने जवाब दिया। सुबह 9 बजे, पुलिसवाले ने कहा, उस समय गिरजे का घंटा बज रहा था।

नीचे गिरने से पहले उसकी लाश ने विदा ली थी : सलमान रुशदी से, अमरीकी राष्ट्रपति से, किसी अफ़्रीकी देश में आई भुखमरी से, अपनी बीवी से। बच्ची का माथा सहलाते हुए उसकी आँखें छलछला आई थीं। ठिठककर एक लमहे के लिए उसने कुछ सोचा था।
पर पूरब की ओर खुली हुई खिड़की उसे न्योता दे रही थी।

बगल की दीवार पर उसकी किताबें लगी हुई थीं, कोने में म्युज़िक बाक्स था, मेज़ पर कविताएँ, संपूर्ण-असंपूर्ण, अधकचरे नोट। मेरे बाद सब कुछ ख़त्म हो जाएगा, ठहरकर उसने सोचा था। लेकिन जब वह खुद ही ख़त्म हो चुका है, फिर क्या सारी चीज़ें ख़त्म नहीं हो गई हैं ?

एक मरे हुए आदमी को लाश बनते कितनी देर लगती है ? चौंककर उसने सोचा था :
अब सब जान जाएँगे कि वह मर चुका है। दो दिन पहले मौसम के बारे में अपनी राय देनेवाला पड़ोसी अब क्या सोचेगा ? मौसम कैसा भी हो, क्या लाश के लिए कोई फ़र्क पड़ता है ? उसे थोड़ा नज़ला सा था और उसने सोचा था : क्या नज़ले के साथ नीचे कूद पड़ना ठीक रहेगा ?

उसने सोचा था, लोग सोचेंगे, इसीलिए वह मुस्कराया करता था, इसीलिए वह इतना बोलता था, इसीलिए वह चुप रहता था।

अपनी लाश को देखकर वह सोचने लगा : लाश बनने का फ़ैसला उसने क्यों लिया था ?
क्या उसने वाकई कोई फ़ैसला लिया था ? क्या मरा हुआ आदमी कोई फ़ैसला ले सकता है ? लेकिन अगर उसने फ़ैसला लिया, फिर क्या वह सचमुच मरा नहीं था ? अगर वह मरा नहीं था, फिर उसने लाश बनने का फ़ैसला क्यों लिया ? क्या यह सिर्फ़ एक ग़लतफ़हमी थी ?

उसने सोचा, पुलिसवाले से पूछा जाए। लेकिन पुलिसवाले के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था।