भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी ही राहों में / रोहित रूसिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी ही राहों में
हम भटके हुए

कितना भी चाहें
मगर उड़ते नहीं
और ज़मी पर
पाँव भी पड़ते नहीं
अधर में पर्दों से
हम लटके हुए

बस पतंगों तरह
सपने उड़े
और ज़रा-सी पेंच से
तकते खड़े
नीम की डाली पे
अब अटके हुए

अपनी ही राहों में
हम भटके हुए