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अपने-अपने शून्य / राजेन्द्र गौतम

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जुट आई है भीड़ देखने
पेड़ आधुनिकता के उखड़े
ढहते काल-नदी के तीर ।

सिंगापुर की तस्वीरों में
जँचता खूब पलामू है
सदी बीसवीं से आजिज-सा
अपना रामू है
मुग्ध गुजरिया लगी नाचने
दधि माखन से भरे घड़े
परदेसों के जुटे अहीर ।

छोटी-सी इस दुनिया में
कितना ज़्यादा है अपनापन
शयन-कक्ष तक तारों से हैं
पहुँच रहे अब आमन्त्रण
गली-गली में बिकते सपने
हीरे-मोती-लाल जड़े
               चमकी ‘गुलकी’ की तकदीर ।

चौराहों पर बिके सूचना
लौकी, कद्दू, सीताफल-सी
पड़ी टोकरी मूल्यों की
पर सड़े-गले बासी कटहल-सी
अपने-अपने शून्य बेचने
बाज़ारों में निकल पड़े सब
              सूरा, तुलसी और कबीर।