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अपने-पराये / अनुपम कुमार

पराये अच्छे होते हैं
कि अपमान की सूई
ताने का तीर
इर्ष्या का चाकू
नफ़रत की शराब
लेकर चलते है

बेशक कोई चूक
नहीं होती इनसे
महीन मौके पे
वीभत्स वारदात को
अंजाम देने में

पर, अपने सालों पिजाते हैं
बैर के बल्लम
तंज़ के तलवार
भ्रम के भाले
अपनी मंद बुद्धि की शीला पर
अहंकार का पानी दे दे कर
पोसते हैं क्रोध के अजगर
खीझ के बिच्छू
कनफुसकी की लोमड़ी
छुपा के रखते हैं
अपमान के अणुबम
और इत्मीनान से इंतज़ार करते हैं
आपका अभिमन्यु होने तक
चतुर शिकारी की तरह
घातक मगरमच्छ की तरह
ऑंखें मूंदकर मानते है बातें
इक दिन वचन से
वध करने के लिये
और ज़नाब! ये कोई हादसा नहीं होता
एक व्यथित मन का
भ्रमित बुद्धि का
वाचिक तुष्टिकरण होता है
विचारों का बंध्याकरण होता है
बाद में सड़ा संस्मरण होता हैं
संबंधों का क्रमिक मरण होता है