भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने इन गीतों की बानी / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:54, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ अपनी है
कुछ जगबीती
अपने इन गीतों की बानी
 
बाँच रहे ये जग की पोथी
जैसे कबिरा ने थी बाँची
माया ठगिनी को भी परखा
कुछ वह झूठी - कुछ है साँची
 
बड़े जतन से
हमने रक्खी
पुरखों की छोड़ी सहिदानी
 
इन गीतों में सहज सहेजा
हमने चंदा-सूरज को भी
बच्चों की आँखों में बसता
साधा है उस अचरज को भी
 
इनमें कनखी का
जादू है
कहीं आँख से बहता पानी
 
किस्सा कहते ये महलों का
खबरें देते हाट-लाट की
साखी देते हैं ये घर की
सगुनापाखी- नदीघाट की
 
मस्जिद की अज़ान
मंदिर की धुन भी
हमने इनसे ही है जानी