Last modified on 17 अक्टूबर 2019, at 22:43

अपने दुश्मन हाथ मलते रह गए / हरिराज सिंह 'नूर'

अपने दुश्मन हाथ मलते रह गए।
हम तो ग़म हँसते-हँसाते सह गए।

कर नहीं पाए जो हमसे खुल के बात,
बोलती आँखों से क्या-क्या कह गए।

पार कर आए समुन्दर इश्क़ का,
ग़म के दरिया में मगर वो बह गए।

बस ख़यालों में ही हम खोए रहे,
और हक़ीक़त के महल सब ढह गए।

हम ज़ुबां से कर सके उफ़ तक न ‘नूर’,
हँस के हम उस के सितम सब सह गए।