"अपने वश में कुछ नहीं / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
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− | + | तुम बिन बैरी रात है,तुम बिन व्यर्थ विहान। | |
+ | छुवन तुम्हारी जब मिले ,पूरे तब अरमान।। | ||
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+ | अपने आँगन में चला , कैसा यह अभियान। | ||
+ | बन्द नैन पढ़ने लगे ,गीता वेद,कुरान ॥ | ||
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+ | मेरी झोली में भरो,चाहे जग के शूल । | ||
+ | प्रिय के पथ में तुम सदा, बोते रहना फूल। | ||
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+ | तेरे मन से जो जुड़े,मेरे मन के तार। | ||
+ | रहना होगा साथ ले, साँसों की पतवार।। | ||
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+ | नुक़्ताचीनी में गए , सभी सुखद दिन- रैन। | ||
+ | हाथ लगा कुछ भी नहीं ,खोकर मन का चैन। | ||
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+ | पाया हमने सेर भर,खोया मन भर प्यार। | ||
+ | पूँजी निकली हाथ से,सब कुछ बिका उधार।। | ||
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+ | खोकर ,ठोकर जब लगी,तभी हुआ यह भान। | ||
+ | आ पहुँचा था द्वार पर,यम लेकर फरमान।। | ||
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+ | टूट चुके इस गाँव के, अब सारे दस्तूर । | ||
+ | दर्पण में दिखते नहीं, अपने ही नासूर ॥ | ||
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+ | रूप आज,कल है नहीं,आती जाती छाँव। | ||
+ | हमको पूरा चाहिए,तेरे मन का गाँव।। | ||
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+ | छाया दी जिस पेड़ ने, काटी उसकी डाल । | ||
+ | बार-बार फिर पूछते, ‘अब तो हो खुशहाल’॥ | ||
+ | 41 | ||
+ | पता नहीं कितने भरे , हमने मन में खोट। | ||
+ | मरहम जब तक ढूँढते, फिर लग जाती चोट ॥ | ||
+ | 42 | ||
+ | गले लगे फिर रो पड़े,दोनों ही इक साथ। | ||
+ | मन में डर था बस यही,छूट न जाए साथ।। | ||
+ | 43 | ||
+ | अपनों का दुख देखकर,मन को मिले न चैन। | ||
+ | इंतज़ार में दिन कटे,कटे दुआ में रैन ।। | ||
+ | 44 | ||
+ | अँसुवन जल से सींचकर,पूजे आँगन-द्वार। | ||
+ | परदेसी आया नहीं,खोले रहे किवार। | ||
+ | 45 | ||
+ | खोजे से मिलता नहीं,हमको अपना गाँव। | ||
+ | हर लेती हर धूप को,जहाँ प्यार की छाँव। | ||
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04:29, 5 मई 2019 का अवतरण
31
तुम बिन बैरी रात है,तुम बिन व्यर्थ विहान।
छुवन तुम्हारी जब मिले ,पूरे तब अरमान।।
32
अपने आँगन में चला , कैसा यह अभियान।
बन्द नैन पढ़ने लगे ,गीता वेद,कुरान ॥
33
मेरी झोली में भरो,चाहे जग के शूल ।
प्रिय के पथ में तुम सदा, बोते रहना फूल।
34
तेरे मन से जो जुड़े,मेरे मन के तार।
रहना होगा साथ ले, साँसों की पतवार।।
35
नुक़्ताचीनी में गए , सभी सुखद दिन- रैन।
हाथ लगा कुछ भी नहीं ,खोकर मन का चैन।
36
पाया हमने सेर भर,खोया मन भर प्यार।
पूँजी निकली हाथ से,सब कुछ बिका उधार।।
37
खोकर ,ठोकर जब लगी,तभी हुआ यह भान।
आ पहुँचा था द्वार पर,यम लेकर फरमान।।
38
टूट चुके इस गाँव के, अब सारे दस्तूर ।
दर्पण में दिखते नहीं, अपने ही नासूर ॥
39
रूप आज,कल है नहीं,आती जाती छाँव।
हमको पूरा चाहिए,तेरे मन का गाँव।।
40
छाया दी जिस पेड़ ने, काटी उसकी डाल ।
बार-बार फिर पूछते, ‘अब तो हो खुशहाल’॥
41
पता नहीं कितने भरे , हमने मन में खोट।
मरहम जब तक ढूँढते, फिर लग जाती चोट ॥
42
गले लगे फिर रो पड़े,दोनों ही इक साथ।
मन में डर था बस यही,छूट न जाए साथ।।
43
अपनों का दुख देखकर,मन को मिले न चैन।
इंतज़ार में दिन कटे,कटे दुआ में रैन ।।
44
अँसुवन जल से सींचकर,पूजे आँगन-द्वार।
परदेसी आया नहीं,खोले रहे किवार।
45
खोजे से मिलता नहीं,हमको अपना गाँव।
हर लेती हर धूप को,जहाँ प्यार की छाँव।