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अपने ही इर्द-गिर्द / देवेन्द्र कुमार

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अपने ही इर्द-गिर्द
हर कहीं नहीं ।

नीचे से ऊपर तक
दूब गई काँप
झाड़-पूँछ पर खड़ा हुआ
काला-साँप
षटमचिया
बियफइया
करके भी कुछ न किया
रह गए
वहीं के
वहीं ।

बाँसों के काग़ज़ पर
         रोज़ का हिसाब
छूट गई बिस्तर पर
         धूप की क़िताब
साखू का पेड़ खड़ा
         पड़ा पेसोपेश में
भूलकर चला आया
         नागों के देश में
अबसे गर लिखना, तो
         पता हो सही ।