भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने ही रचे को / सांवर दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहली बरसात के साथ ही
घरों से निकल पडते हैं बच्चे
रचने रेत के घर

घर बनाकर
घर-घर खेलते हुए
खेल ही खेल में
मिटा देते हैं घर

अपने ही हाथों
अपने ही रचे को मिटाते हुए
उन्हें नहीं लगता डर

सुनो ईश्वर !
सृष्टि को सिरज-सिरज
तुम जो करते रहते हो संहार
बने रहते हो-
बच्चों की ही तरह निर्लिप्त-निर्विकार ?