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"अपन जान मैं बहुत करी / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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(New page: कवि: सूरदास Category:कविताएँ Category:सूरदास राग बिलावल चरन कमल बंदौ हरि रा...)
 
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राग बिलावल
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राग धनाश्री
  
  
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अपन जान मैं बहुत करी।
  
चरन कमल बंदौ हरि राई।
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कौन भांति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी, समुझी न परी॥
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई॥
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बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।
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सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥
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भावार्थ :-- जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती है, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है। लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सबकुछ देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता हे। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन अभागा न करेगा।
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दूरि गयौ दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी।
  
शब्दार्थ :-राई= राजा। पंगु = लंगड़ा। लघै =लांघ जाता है, पार कर जाता है।  
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मनसा बाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी॥
मूक =गूंगा। रंक =निर्धन, गरीब, कंगाल। छत्र धराई = राज-छत्र धारण करके।
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तेहि = तिनके। पाई =चरण।
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गुन बिनु गुनी, सुरूप रूप बिनु नाम बिना श्री स्याम हरी।
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कृपासिंधु अपराध अपरिमित, छमौ सूर तैं सब बिगरी॥
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भावार्थ :- जीव मानता है कि अपनी शक्ति पर प्रभु प्राप्ति की उसने अनेक साधनाएं की, पर
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अन्त में यह उसकी भ्रांत धारणा ही निकली। प्रभु तो सर्वत्र व्यापक है पर यह कहां-
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कहां उसके दर्शन को भटकता फिरा। समझ में न आया कि वह निर्गुण होते हुए भी सगुण है,
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निराकार होते हुए भी साकार है। अज्ञान में तो अपराध हुए ही ज्ञानाभिमान के द्वारा
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भी कम अपराध नहीं हुए। सो अब तो बिगड़ी हुई बात क्षमा मांगने से ही बनेगी।
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शब्दार्थ :- ताईं =लिए। प्रभुता = ईश्वरता। मनसा = मनसे। वाचा =वाणी से।
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अगोचर = इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे। धरी =धारणा की। छमौ = क्षमा करो।

00:38, 3 अक्टूबर 2007 का अवतरण

कवि: सूरदास


राग धनाश्री


अपन जान मैं बहुत करी।

कौन भांति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी, समुझी न परी॥

दूरि गयौ दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी।

मनसा बाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी॥

गुन बिनु गुनी, सुरूप रूप बिनु नाम बिना श्री स्याम हरी।

कृपासिंधु अपराध अपरिमित, छमौ सूर तैं सब बिगरी॥


भावार्थ :- जीव मानता है कि अपनी शक्ति पर प्रभु प्राप्ति की उसने अनेक साधनाएं की, पर अन्त में यह उसकी भ्रांत धारणा ही निकली। प्रभु तो सर्वत्र व्यापक है पर यह कहां- कहां उसके दर्शन को भटकता फिरा। समझ में न आया कि वह निर्गुण होते हुए भी सगुण है, निराकार होते हुए भी साकार है। अज्ञान में तो अपराध हुए ही ज्ञानाभिमान के द्वारा भी कम अपराध नहीं हुए। सो अब तो बिगड़ी हुई बात क्षमा मांगने से ही बनेगी।


शब्दार्थ :- ताईं =लिए। प्रभुता = ईश्वरता। मनसा = मनसे। वाचा =वाणी से। अगोचर = इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे। धरी =धारणा की। छमौ = क्षमा करो।