भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपन हारल बहुअक मारल / नरेश कुमार विकल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोरे आयल रिक्शा
चढ़िकऽ गेलहूँ अप्पन टीशन।
रिक्शा बला कें दऽ कऽ कैंच्चा
बढ़लहुँ ‘बुकिंग’ दीसन।

गाड़ी फूजऽ मे बाँचल छल
मात्र दसे मिनट।
मनी बैग मे धयलहुँ कंच्चा
धयलहुँ अपन टिकट।

तखने सुनलहुँ बाजि रहल छल
लिअऽ औ बाबू! बीड़ी!
बीसे पाई मे भेंटत पचीसे
आ‘ सलाई एकटा फोरी।

दोसर आयल कहलक लिअऽ
देखि कें हमर भाजा।
आठ मसाला फेंट बनाओल
खाए मे लागत माजा।

गाड़ी पहुँचल, लागल हमरा
बड़ी जोर कें भूख।
घर सँ बिनु खयने चललहुँ जे
तकरे छल ई दुःख।

पुनः चढ़ि रिक्शा, पहुँचलहुँ
अपन परिचित ओतए।
राखि सामान भोरे बहरेलहुँ
डेरा भेंटत कतए ?

कतओ नरक सन भेंटय डेरा
कतओ रेण्ट छल बेसी।
कतओ भेंटय बिलाँयती बाजब
मुर्गी छल ओ देसी।

कतओ बिजली कें चार्ज फराके
कतओ दिअए ने चौकी!
कोनो आंगन मे देखऽ गेलहूँ
होइत छल बेटबा-खौकी।

टहलैत-टहलैत ठहरि गेलहूँ
हम, एक गाम मे जाकऽ।
ओ बेचारे उछलि गेलहि
हमरा सन कवि पाकऽ।

ओ छलाह मुखिया गाम केर
बेस पैघ सन धूआ।
उज्जर धप-धप खादी केर ओ
छलाह पहिरने नूआ।

तखने नौकर कें बजा पठौलनि
साफ करऽ ई डेरा।
चौकी-टेबुल एकटा कुर्सी
लाबऽ ने अछि बेरा।

बड़ आग्रह सँ कहलनि हमरा
होएत हमरे ओतए भोजन।
चीज वस्तु लाएब कखनहुँ यौ
धोबू पयर कें एक्खन।

आग्रह टारि सकलहुँ ने हुनकर
बड़ पवित्र छल भोजन।
मुदा एकटा चीज जे देलनि
ने छलनि दही मे जोड़न।

पुनः ठीक कऽ अपन ढेराकें
टंगलहुँ सभटा फोटो।
एकटा हैंगर टाँगि के टंगलहुँ
धोती-कुरता आ‘ कोटो।

मुदा काल्हि भऽ हम कहलियैन्ह
खाएब ने अहाँ ओतए।
अहाँ सल कें पैघ जनी सँ
भेंट होएत कतए।

पुनः गहूँमक मंगाकऽ चिक्कस
फूकलहूँ अपन कूकर।
मुदा संग मे छलने चालनि
कोना कऽ चालितहूँ चोकर।

कहियो जिनगी मे छलहुँ बनौने
हम ने गहूमक सोहारी।
पाकल हाथ टेढ़ भेल नक्शा
आ‘ झिंगुनी कें तरकारी।

आब सुनू झिंगुनी के हालत
नोन पड़ि गेल बेसी।
तेल पड़ल छल कैन्थ्राइडीन कें
एक्के रंग छल सीसी।

जरल बीच मे सोहारी केर
मुदा कात मे कांचे
बिनु घरनी कें घर ने शोभय
कहबी छैक ई सांचे।

ठाढ़ि छलि आगाँ मे हमरा
मुखिया जी केर बेटी।
नजरि पड़ल ओकरा पर तहिखन
जँ तनिक उठेलहुँ घेंटी।

बयस षोडशी कें काया मे-
भरल जुआनी ओक्कर।
नम्हर-नम्हर केश सघन छल
कजरायल नयन छल ओक्कर।

तंग गुलाबी चुस्त पहिरने
नीचा उज्जर धप-धप।
गाल दुनू ओहिना छल ओकर
जहिना हो आलू-चॉप।

पहिने तऽ ओकरा देखितहिं
बुझलहुँ ई सपना थिक।
आँखि कें मलिकऽ जँ देखलहुँ-
बुझलहुँ ई भम्र अपना थिक।

ओ कहि उठलि किऐ लजाओल
बड़ नीक अछि खाना।
फोड़ि अहाँ दितियैक कपार कें
जँ बनौने रहितथि ई जनाना।

हटू बना कें देखा दैत छी
हम अहाँक सोहारी
बना लिअऽ हमरा बहिकिरनी
डेरा सून अछि बिनु नारी।

लेब ने एक्को टा पाई हम
लेब हम ने खाना।
मुदा अहाँ कें बात सभ मानव
सहब अहाँ केर ताना।

हम कहलियैक घर सँ रूसल
तें नीक कें नहि अछि भोग।
अपन हारल बहुअक मारल
ककरा कहैत अछि लोक ?