Last modified on 18 सितम्बर 2019, at 11:09

अपरा / कुबेरनाथ राय

तुम्हारी अपरा छबि का ध्यान
तब मन में आता था बार-बार
ये बाग बगीचे पेड़ तुम्हारे, पीले सरसों के खेत
यह चुनरी तुम्हारी सबुज-पीत धरती-नभ के आर-पार,
जिसका आँचल मन में फहराया बार-बार।

अमराई के बांसों से हर-हर खड़-खड़ स्वर समवेत
ऊपर उठी तुम्हारे नभ में स्वर की एक बलाका।
पाँत-पाँत में उठते जाते श्वेत बगूलों के दल
दिशा-दिशा को मथता फिरता व्याकुल
कोकिल का पंचम; जब नभ में हँसती राका।

उन सबके भीतर पाया मैंने
तुमको ही बार-बार।
तुम्हारी अपरा छबि का ध्यान
किया है मैंने बार-बार।

[1962 ]