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अपशकुनी तारे ने / रमेश रंजक

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धोने में बीत गया हर पल-छिन
            धुले नहीं पिछले दिन ।

एक त्रिया-हठ ऐसा बिखरा है
           बँध-बँध कर खुलता है
जब कोई दूर का, पड़ोसी का
              सम्वेदन छुलता है

आँगन को सागर करने की ज़िद
            करती है पनिहारिन ।

ऐसा भूचाल उठा है भीतर
            ढुलक रहे हैं पर्वत
रोक नहीं पातीं चन्दन बाहें
            जाने क्यों दूरागत

अपशकुनी तारे ने फेंक दिए
            मुट्ठी-भर कर दुर्दिन ।