भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपेक्षा-उपेक्षा / निमिषा सिंघल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:21, 18 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निमिषा सिंघल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपेक्षाएँ पांव फैलाती हैं
जमाती हैं अधिकार,
दुखों की जननी का हैं एक अनोखा संसार।

जब नहीं प्राप्त कर पाती सम्मान,
बढ़ जाता है क्रोध
आरम्पार,
दुख कहकर नहीं आता
बस आ जाता है पांव पसार।

उलझी हुई रस्सी-सी अपेक्षाएँ ख़ुद में उलझ
सिरा गुमा देती हैं।
भरी नहीं इच्छाओं की गगरी
तो मुंह को आने लगता है दम।

भरने लगी गगरी
उपेक्षाओं के पत्थरों से,
जल्दी ही भर भी गईं
पर रिक्तता बाक़ी रही।

मन का भी हाल कुछ ऐसा ही है
स्नेह की नम मिट्टी पूर्णता बनाए रखती हैं,
उपेक्षाएँ रिक्त स्थान छोड़ जाती हैं।