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अप्रेम / अनुराधा सिंह

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तुम हर बार कितने भी अलग
नए चेहरे में आये मेरे पास
मैं पहचान लेती रही
विडम्बना यह थी कि
मैं तुममें का
प्रेम पहचानती रही
आह्लाद से आपा खोती रही हर बार
भूल भूल जाती रही
कि प्रेम तुम तब तक
और उतना ही कर पाओगे मुझसे
जब तक और जितनी मैं तुम्हारे अप्रेम में रहूंगी
मेरी माँ यह कठिन यंत्र सिखाना भूल गयी थीं मुझे
और उनकी माँ उन्हें
वे सब कच्ची जादूगर थीं
पहले ही जादू में अपनी पूरी ताकत झोंक देतीं थीं
उस पर कि
बस आधा जादू जानती थीं
अपने ही तिलिस्म में फँस कर
दम तोड़तीं रहीं
उन्हें उस मंतर का तोड़ तक नहीं मालूम था
जो पलट वार करता था
हालाँकि सीना पिरोना साफ़ सफाई और पकाने से ज़्यादा
अनिवार्य विषय था
अप्रेम में रहना सीखना और सिखाना
बहुत करीब से दूर तक जो पगडंडियाँ
सड़कें और पुल पुलिया देखती हूँ
जो तुमने बनाये हैं
किसी न किसी सदी तारीख या पहर
वे सब किसी न किसी जगह से बाहर
जाने के तरीके हैं
प्रेम से बाहर जाने का तरीका नहीं है इनमें से एक भी।