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अप्सरा – तीन / राकेश रेणु

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हमारे समय में
वह तोड़ती है बेड़ियाँ
अपने अक्षत यौवन से
अनादि काल से मज़बूत
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियाँ

वह मुक्त होती है
काम मार्ग से, योनि मार्ग से
वह मुक्त होती है
चराचर के समस्त बन्धनों से
सम्बन्धों से, समाज से, परम्परा से

वह मुक्त होती है अपनी
तरलता और सरलता से
अन्तरित होती है नवीन काया में
नई व्यवस्थाएँ रचती है
निःसृत होती है काम मार्ग से

कसती है मोहिनी, माया का पाश
देव, ऋषि, वृक्ष-वन, नदी से गुज़रती है
वह कसती है मनुज को पाश में अपने
और मुक्त होती है परम्परा में ।