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"अबला-१. तूफ़ान के दिन / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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''' अबला-१. तूफ़ान के दिन '''
  
 
उसके उनींदे अलसाए अकेलेपन में  
 
उसके उनींदे अलसाए अकेलेपन में  
मर्द-हथियारों के अन्यत्र होने पर
+
मर्द-हथियारों के अन्यत्र होने पर,
 
वह कुख्यात छापामार दल-बल समेत
 
वह कुख्यात छापामार दल-बल समेत
 
चौतरफा आ-दबोचता है उसे
 
चौतरफा आ-दबोचता है उसे
 
चोरी-छुपे, चुपके से नहीं  
 
चोरी-छुपे, चुपके से नहीं  
बल्कि दहाड़ता-फुफकारता हुआ
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बल्कि दहाड़ता-फुफकारता हुआ,
 
औचक सैकड़ों दिशाओं से
 
औचक सैकड़ों दिशाओं से
वह भीटर-बाहर निस्सहाय  
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वह भीतर-बाहर निस्सहाय  
 
सहमी-सहमी निरुपाय  
 
सहमी-सहमी निरुपाय  
 
आखिर, करे तो क्या करे
 
आखिर, करे तो क्या करे
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आ-धमकने से पहले  
 
आ-धमकने से पहले  
 
काट दी थी
 
काट दी थी
टेलीफोन और बिजली की लाइनें  
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टेलीफोन और बिजली की लाइनें,
 
भींचकर सूरज को मुट्ठी में  
 
भींचकर सूरज को मुट्ठी में  
कर दिया था घुप्प अन्धेरा
+
कर दिया था घुप्प अन्धेरा,
 
मन-बहलाते उसके खग-मित्रों को  
 
मन-बहलाते उसके खग-मित्रों को  
जहरीली फुफकारों से अचेत धराशाई कर दिया था
+
जहरीली फुफकारों से  
रक्षक जटायुओं के काट डाले थे पंख  
+
अचेत धराशाई कर दिया था,
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रक्षक जटायुओं के काट डाले थे पंख--
 
बजाकर विध्वंसक ताण्डवी शंख,
 
बजाकर विध्वंसक ताण्डवी शंख,
उनके थरथराते घोसलों को बाजुओं में जकड़
+
उनके थरथराते घोसलों को बाजुओं में जकड़
 
धुआंधार घात-प्रतिघात से
 
धुआंधार घात-प्रतिघात से
कर दिया था बेदम-बेज़ार
+
कर दिया था बेदम-बेज़ार,
नीचे धुल चाटने लगे थे
+
नीचे धूल चाटने लगे थे
 
चौखटों से टूटे दरवाज़े-पल्ले
 
चौखटों से टूटे दरवाज़े-पल्ले
 
और रोशनदानों के चूर हुए शीशे  
 
और रोशनदानों के चूर हुए शीशे  
  
 
घुसपैठ करने से पहले  
 
घुसपैठ करने से पहले  
लापलापाते हाथों से उसने  
+
लपलपाते हाथों से उसने  
 
ताबड़तोड़ थप्पड़-झापड़ रसीद कर  
 
ताबड़तोड़ थप्पड़-झापड़ रसीद कर  
 
उसकी खरगोशी आँखों में  
 
उसकी खरगोशी आँखों में  
 
विषबुझी रेतें उड़ेलकर  
 
विषबुझी रेतें उड़ेलकर  
उसे लुंज-पुंजबुट बना दिया था
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उसे लुंज-पुंज बुत बना दिया था
  
उफ्फ़! वह उफ्फ़ तक न कर पाई थी
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उफ्फ़!  
खुद को सुरक्षित अपने-आप में समेट भी न पाई थी  
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वह उफ्फ़ तक न कर पाई थी
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खुद को अपने-आप में  
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सुरक्षित समेट भी न पाई थी  
 
अपने किसी कृष्ण को रक्षार्थ बुला भी न पाई थी
 
अपने किसी कृष्ण को रक्षार्थ बुला भी न पाई थी
और पलक झपकतें उसने उसकी देह दबोच  
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और पलक झपकते उसने उसकी देह दबोच  
 
हर लिया था उसका चीर  
 
हर लिया था उसका चीर  
बिगाड़ दिया था उसका साज-सिंगार
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बिगाड़ दिया था  
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उसका साज-सिंगार
  
 
वह निर्वस्त्र-निष्पात कंपकपाती टहनी  
 
वह निर्वस्त्र-निष्पात कंपकपाती टहनी  
 
जाती तो किन झुरमुटों की साया में  
 
जाती तो किन झुरमुटों की साया में  
 
सिवाय रसोई के कोने से  
 
सिवाय रसोई के कोने से  
जिसकी वेबस खिड़कियों से  
+
जिसकी बेबस खिड़कियों से  
 
अपना खौफ़नाक सिर डालकर  
 
अपना खौफ़नाक सिर डालकर  
 
वह उसे बदतमीजी से घूर रहा था  
 
वह उसे बदतमीजी से घूर रहा था  
 
कुटिल आँखों से लूट-खसोट रहा था  
 
कुटिल आँखों से लूट-खसोट रहा था  
  
बिचारी निर्जीव, नि:शब्द, नि:शक्त
+
बिचारी निर्जीव,नि:शब्द, नि:शक्त
 
सहती रही ज्यादतियाँ  
 
सहती रही ज्यादतियाँ  
जो वह करता रहा निर्विघ्न बेरोकटोक
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जो वह करता रहा  
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निर्विघ्न बेरोकटोक
  
 
जी-भर मनमाना करने
 
जी-भर मनमाना करने
हवासी जोश के पस्त होने
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हवसी जोश के पस्त होने
 
और अपने विजयोन्मत्त सैन्यबल द्वारा
 
और अपने विजयोन्मत्त सैन्यबल द्वारा
 
हथियारों को राहत बख्शने के बाद  
 
हथियारों को राहत बख्शने के बाद  
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पछतावे की लकीरें नहीं थीं  
 
पछतावे की लकीरें नहीं थीं  
 
बल्कि, ज़ल्दी ही वापस लौटने की बेताबी थी
 
बल्कि, ज़ल्दी ही वापस लौटने की बेताबी थी
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12:49, 29 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

अबला-१. तूफ़ान के दिन

उसके उनींदे अलसाए अकेलेपन में
मर्द-हथियारों के अन्यत्र होने पर,
वह कुख्यात छापामार दल-बल समेत
चौतरफा आ-दबोचता है उसे
चोरी-छुपे, चुपके से नहीं
बल्कि दहाड़ता-फुफकारता हुआ,
औचक सैकड़ों दिशाओं से

वह भीतर-बाहर निस्सहाय
सहमी-सहमी निरुपाय
आखिर, करे तो क्या करे
जाए तो कहाँ जाए

उसने पूर्वनियोजित ढंग से
आ-धमकने से पहले
काट दी थी
टेलीफोन और बिजली की लाइनें,
भींचकर सूरज को मुट्ठी में
कर दिया था घुप्प अन्धेरा,
मन-बहलाते उसके खग-मित्रों को
जहरीली फुफकारों से
अचेत धराशाई कर दिया था,
रक्षक जटायुओं के काट डाले थे पंख--
बजाकर विध्वंसक ताण्डवी शंख,
उनके थरथराते घोसलों को बाजुओं में जकड़
धुआंधार घात-प्रतिघात से
कर दिया था बेदम-बेज़ार,
नीचे धूल चाटने लगे थे
चौखटों से टूटे दरवाज़े-पल्ले
और रोशनदानों के चूर हुए शीशे

घुसपैठ करने से पहले
लपलपाते हाथों से उसने
ताबड़तोड़ थप्पड़-झापड़ रसीद कर
उसकी खरगोशी आँखों में
विषबुझी रेतें उड़ेलकर
उसे लुंज-पुंज बुत बना दिया था

उफ्फ़!
वह उफ्फ़ तक न कर पाई थी
खुद को अपने-आप में
सुरक्षित समेट भी न पाई थी
अपने किसी कृष्ण को रक्षार्थ बुला भी न पाई थी
और पलक झपकते उसने उसकी देह दबोच
हर लिया था उसका चीर
बिगाड़ दिया था
उसका साज-सिंगार

वह निर्वस्त्र-निष्पात कंपकपाती टहनी
जाती तो किन झुरमुटों की साया में
सिवाय रसोई के कोने से
जिसकी बेबस खिड़कियों से
अपना खौफ़नाक सिर डालकर
वह उसे बदतमीजी से घूर रहा था
कुटिल आँखों से लूट-खसोट रहा था

बिचारी निर्जीव,नि:शब्द, नि:शक्त
सहती रही ज्यादतियाँ
जो वह करता रहा
निर्विघ्न बेरोकटोक

जी-भर मनमाना करने
हवसी जोश के पस्त होने
और अपने विजयोन्मत्त सैन्यबल द्वारा
हथियारों को राहत बख्शने के बाद
जब वह बोझिल कदमों से
मुर्दे रौंदते वापस गया
तो उसके चेहरे पर
पछतावे की लकीरें नहीं थीं
बल्कि, ज़ल्दी ही वापस लौटने की बेताबी थी