भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
'''महानगर में भटकने पर'''
 
धूम्र छत्ते के नीचे
रपटती सड़कों पर
सांप-गाड़ियों, कीट-पसिंजरों
के धक्कमपेल में
बिछुड़ गयी अपने मरद से
 
रेड लाइटों पर भागकर
मोटर-गाडियों के जबड़े से
अपनी टांग छुडाई
मर्दाने अंगों से बचाते-बचाते
खायी में फिसली-गिरी
पुलिस-भैया के बहकावे में
निचाट चौकी से पिंड छुडाई
फिर, राहत की सांस लेने
भीड़ में समाई
 
धूप में रगड़ खा
पसीने-पसीने हुई
मर्दानी दुर्गन्ध से सराबोर हुई
मतली-उल्टी से जार-जार हुई
आखिरकार, सूखी नाली में चलती हुई
महफूज़ हुई
 
उसे लगा कि जैसे
औचक आंधी आ गई हो
और वह झूल रही हो
अलगनी पर साड़ी की तरह,
जिसे मायके जाती औरत
उतारना भूल गई हो.