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अब्रे-बहार / मेला राम 'वफ़ा'

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खल्के ख़ुदा है तेरे लिए बेक़रार आ
मोर-ओ-तयूर को है तिरा इंतज़ार आ

तकता है कब से राह तिरी बादाख़्वार आ
बेताब है गदाए सरे रहगुज़ार आ

महवे-दुआ है ज़ाहिदे-शब ज़िंदादार आ
दहक़ान की निगाह है यास आशकर आ

हर दिल से उठ रही है सदा बार बार आ
हर लब पर इल्तिजा है बसद इंकिसार आ

फैलाएं दामनों को हैं उम्मीदवार आ
लेकर पयामे रहमते परवर दिगार आ

मोती बिखेरता हुआ अब्रे-बहार आ

गर्मी से मुज़तरिब है बहुत जाने-ज़ार आ
तुझ पर है ज़िन्दगी का बस अब इंहिसार आ

हसरत फ़ज़ा है मंज़रे- शहर-ओ-दयार आ
आलम है सारा आलमे-गर्दो-ग़ुबार आ।

वक़्फे ग़म-ओ-मलाल हैं लैलो-निहार आ
ए बागो-दश्तो-कोह के शादाबकार आ

मुरझा गये हैं शाखों-गुलो-बर्गोबार आ
प्यासा खड़ा है सर्वे-लबे-जूएदार आ

सूरत दिखा के लौट न जा बार बार आ
आने में और देर न कर ज़ीनदार आ

आ और आने की तरह अब्रे-बहार आ

फिर धूप हो चली है बहुत नागवार आ
फिर पत्थरों से उड़ने लगे हैं शरार आ

निकली नहीं ज़मीन के दिल का बुखार आ
बैठा नहीं गुबारे-सरे-रह गुज़ार आ

मशरिक़ से झूमता हुआ मस्ताना वार आ
मग़रिब से उठ के दोशे हवा पर सवार आ।