भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब्र चाहे, चांद उसकी ज़द में हो / अनीता सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब्र चाहे, चांद उसकी ज़द में हो
दिन ये चाहे रात अपनी हद में हो

घर की छत से सर अगर टकराए तो
शख़्स को बेहतर है अपने क़द में हो

सोचिए! कश्ती हो जर्जर और वो
तेज़तर तूफ़ान की भी ज़द में हो

आदमी क्यूं ढल गया हैवान में
बात इस पर भी कभी संसद में हो

और कुछ भी तो नहीं फिर सूझता
शे'र कोई जिस घड़ी आमद में हो