भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अब आग के लिबास को / कुँअर बेचैन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन }} अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए। सुलगी ...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=कुँअर बेचैन | |रचनाकार=कुँअर बेचैन | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatNavgeet}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | अब आग के लिबास को ज़्यादा न दाबिए, | ||
+ | सुलगी हुई कपास को ज़्यादा न दाबिए । | ||
− | + | ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें, | |
+ | चटके हुए गिलास को ज़्यादा न दाबिए । | ||
− | + | चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में, | |
+ | पैरों तले की घास को ज़्यादा न दाबिए । | ||
− | + | मुमकिन है ख़ून आपके दामन पे जा लगे, | |
+ | ज़ख़्मों के आसपास यों ज़्यादा न दाबिए । | ||
− | + | पीने लगे न ख़ून भी आँसू के साथ-साथ, | |
− | + | यों आदमी की प्यास को ज़्यादा न दाबिए । | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | पीने लगे न | + | |
− | + | ||
− | यों आदमी की प्यास को | + |
19:31, 30 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
अब आग के लिबास को ज़्यादा न दाबिए,
सुलगी हुई कपास को ज़्यादा न दाबिए ।
ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें,
चटके हुए गिलास को ज़्यादा न दाबिए ।
चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में,
पैरों तले की घास को ज़्यादा न दाबिए ।
मुमकिन है ख़ून आपके दामन पे जा लगे,
ज़ख़्मों के आसपास यों ज़्यादा न दाबिए ।
पीने लगे न ख़ून भी आँसू के साथ-साथ,
यों आदमी की प्यास को ज़्यादा न दाबिए ।