भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब कछु स्याम! तुमहुँ हठ ठानी / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग रामकली, तीन ताल 20.9.1974

अब कछु स्याम! तुमहुँ हठ ठानी।
ज्यों-ज्यों भगत बढ़हिं काहूके त्यों-त्यों बढ़त गुमानी॥
हों तो दीन-हीन अति पामर भगति न कछु उर आनी।
तुमही ने यह लत्त लगाई, समझूँ लाभ न हानी॥1॥
अपने तो लागत हो तुम ही, और न कहुँ रति मानी।
टेरत हूँ दिन-रैन तुमहिं, पै सुनहु न तुम मो बानी॥2॥
तुम बिनु पलहुँ न परत चैन, पै पाऊँ कोउ न निसानी।
कैसे मिलि हो प्राननाथ! कोउ गैल न हौं कछु जानी॥3॥
तरसत है दिन-रैन नैन, अब रह्यौ न तिनमें पानी।
कहा करों कोउ पन्थ न सूझत, महामूढ़ अग्यानी॥4॥
तुमहि लगाई तुमहि निबेरो, करो न खींचा-तानी।
मेरी डोर तिहारे कर है, मैं कठपुतरि पुरानी॥5॥
मारो वा तारो मनमोहन! मोहिं न आना-कानी।
पै निज विरद विचारि करहु जामें न होय बदनामी॥6॥

शब्दार्थ
<references/>