भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे / प्रेमचंद सहजवाला

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:10, 21 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमचंद सहजवाला }} {{KKCatGhazal}} <poem> अब कहा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे
रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे

सारी मौजें आसमां को छू रही थी एक साथ
पर समुन्दर में सभी नदियों के शामिल आब थे

सुबह आए इसलिए वो रात भर जलते रहे
रौशनी से लिख रहे वो इक सुनहला बाब थे

कुछ कदम चलना था तुझ को कुछ कदम फिर मैं चला
सामने फिर डूबने को इश्क के गिर्दाब थे

शहृ जब पहुंचे तो खुश थे फिर अचानक क्या हुआ
हादसों के सिलसिलों में हम सभी गरकाब थे

मंज़िलों के सब मसीहा मील पत्थर बन गए
वो शहादत के फलक पर जलवागर महताब थे

ईद पर जब चाँद निकला सब सितारे खुश हुए
कर रहे फिर एक दूजे को सभी आदाब थे