भूकंपी गड़गड़ाहट
या अंधेरे की अकेली
चीख़ से
अब कभी भी डर नहीं लगता
अब किसी से डर नहीं लगता
अब सन्नाटा काटता नहीं
सालता नहीं, छीलता नहीं
धमनियों में ज्वार जैसा
ज्वर नहीं लगता
अब कहीं भी डर नहीं लगता
बन गया है लौह प्रस्तर
वह हृदय रोता नहीं
कुछ कहीं होता नहीं
अब किसी का व्यंग
भी नश्तर नहीं लगता
इसलिये अब डर नहीं लगता
अब न कोई घाव
इतना टीसता है
न दर्द कोई पीसता है
न तनाव खींचता है
फण उठाये हर कोई
फणियर नहीं लगता
अब किसी से डर नहीं लगता।