Last modified on 20 अक्टूबर 2017, at 18:57

अब गिरिजाघर के घंटे कोई ईसा नहीं बजाता / राकेश पाठक

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:57, 20 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तलबे में जमी प्रेम कविताएँ मसल दी गयीं
रौंद दिए गए अतीत के चुने हुए फूल भी

जिस प्रेम को तुमने चुना
बह गए उसी अशरीरी आँखों के हिस्से से

और अंगारों की तरह दहकने लगा था प्रेम उन्हीं तलबों के उताण्ड सेे

यही से दो हिस्से भी हुए
एक रौंदा गया लाल स्वस्तिक के साथ
दूजा बाँट दिया गया मृत संसार को
इस अशरीरी आत्मा के आह्वान के लिए

अब गिरिजाघर के घंटे कोई ईसा नहीं बजाता.