भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब चलो फिर आज गँगा में नहाएँ / सुरेन्द्र सुकुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:37, 17 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र सुकुमार |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अब चलो फिर आज गँगा में नहाएँ
और अपने नाम की डुबकी लगाएँ
फिर रचेगा कोई बिन्दिया शैवाल पर
कोई भटकी याद आएगी सुनो
ताड़ वृक्षों पर जमेंगीं ओस की बून्दें
जिन्हें हम चुनें कुछ तुम चुनो
फिर से हरियल बाँस की नैया बनाएँ
और उसमें बैठ कर के पार जाएँ
और अपने नाम की डुबकी लगाएं
फिर से सूरज तपताएगा सुनो
धूप होगी बाबरी फिर से
फिर रखेंगी मौन ये चँचल हवाएँ
चान्दनी होगी सँगमरमरी फिर से
बहुत बड़बोली दिशाएँ डींग मारेंगी
चलो, चल कर इन्हें शीशा दिखाएँ
और अपने नाम की डुबकी लगाएँ