http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%AC_%E0%A4%9C%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A4%BF_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%B9%E0%A5%82%E0%A4%81_/_%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5&feed=atom&action=historyअब जबकि जान गया हूँ / बोधिसत्व - अवतरण इतिहास2024-03-28T20:54:08Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%AC_%E0%A4%9C%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A4%BF_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%97%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%B9%E0%A5%82%E0%A4%81_/_%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5&diff=208212&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बोधिसत्व |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2016-07-25T01:48:40Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बोधिसत्व |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
जबकि जान गया हूँ<br />
चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता<br />
तो क्या चींटियों को पिसान्न डालना रोक दूँ।<br />
<br />
जबकि जान गया हूँ<br />
बाझिन गाय को चारा न दूँ<br />
खूँटे से बाँध कर रखूँ या निराजल हाँक दू दो डण्डा मार कर<br />
वध करूँ मनुष्य का या पशु का<br />
कोई नर्क नहीं कहीं<br />
तो क्या उठा लूँ खड्ग<br />
<br />
जबकि जान गया हूँ कि क्या गँगा क्या गोदावरी<br />
किसी नदी में नहाने से<br />
सूर्य को अर्ध्य देने से<br />
पेड़ को जल चढ़ाने से<br />
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे<br />
तो गँगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ<br />
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो<br />
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो<br />
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो<br />
<br />
<br />
जबकि जान गया हूँ आकाश से की गई प्रार्थना व्यर्थ है<br />
मेघ हमारी भाषा नहीं समझते<br />
धरती माँ नहीं<br />
तो भी सुबह पृथ्वी पर खड़े होने के पहले अगर उसे प्रणाम कर लूँ तो...<br />
यदि आकाश के आगे झुक जाऊँ तो<br />
बादलों से कुछ बून्दों की याचना करूँ तो<br />
<br />
जबकि जान गया हूँ<br />
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ<br />
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब<br />
तो भी यदि अपनी पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूँ तो<br />
अपनी माँ को जगदम्बा कह दूँ तो<br />
<br />
जबकि जान गया हूँ<br />
अन्न कोई देव नहीं<br />
उसे धरती को जोत-बो कर उगाते हैं लोग<br />
किन्तु यदि कौर उठाते शीश झुका दें तो<br />
<br />
ऐसा बहुत कुछ है<br />
जो न जानता तो पता नहीं क्या होता<br />
लेकिन अब जो जान गया हूँ तो<br />
क्या करूँ..... पिता<br />
क्या करूँ गुरुदेव<br />
क्या करूँ देवियों और सज्जनों<br />
अपने इस जानने का<br />
</poem></div>अनिल जनविजय