भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब जमाना ह बदल गेहे बाबू / रमेशकुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:22, 6 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेशकुमार सिंह चौहान |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुरता आवत हे मोला एक बात के,
बबा ह मोर ले कहे रहिस एक रात के।
का मजा आवत रहिस हे आगू,
अब जमाना ह बदल गेहे बाबू।

अब कदर कहां हे दीन ईमान के,
अब किमत कहां हे जुबान के।
अब कहां छोटे बड़े के मान हे,
ऐखर मान होत रहिस हे आगू।। अब जमाना ह बदल गेहे बाबू...

कोनो ल कोनो घेपय नही,
कोनो ल कोनो टोकय नही।
जेखर मन म जइसे आत है,
ओइसने करत जात है।
माथा धर के मैं गुनत हव
अब का होही आगू।। अब जमाना ह बदल गेहे बाबू...

हमर नान्हेपन म होत रहिस हे बिहाव तेन कुरिती होगे,
अब बाढे बाढे नोनी बाबू उडावत हे गुलछर्रा तेने ह रिति होगे।
परिवार नियोजन के अब्बड़ अकन साधन,
अब कुवारी कुवारा ल कइसे करके बांधन।
 मुह अब सफेद होवय न करिया,
मुह करिया होत रहिस हे आगू।। अब जमाना ह बदल गेहे बाबू...

बलात्कारीमन ग्वालीन किरा कस सिगबिगावत हे,
कोन जवान त कोन कोरा के लइका चिन्ह नई पावत हे।
सरकार आनी बानी के कानून बनावते हे,
तभो ऐमन एक्को नइ डर्रावत हे।
संस्कार ले खसले म नई सुझय आगू पाछू।। अब जमाना ह बदल गेहे बाबू...

कानून के डंडा ले संस्कार नई आवय,
विदेशी संस्कृति ह नगरा नाच नचावय।
लोक लाज अऊ शरम हया अब कहां हे,
कोनो ल कोखरो परवाह कहां हे।
तन ले नही मन ले होना चाही साधु।। अब जमाना ह बदल गेहे बाबू