Last modified on 18 सितम्बर 2016, at 04:06

अब तलक ये समझ न पाए हम / प्रखर मालवीय 'कान्हा'

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:06, 18 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रखर मालवीय 'कान्हा' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अब तलक ये समझ न पाए हम
ग़म तिरा क्यूँ ख़रीद लाये हम?

इक हवेली थी मोम की अपनी
छत पे सूरज उतार लाये हम

इक तबस्सुम की चाह में जानां
लुट गये उफ़ ! बसे बसाये हम

अब भी बेवक़्त मुस्कुराते हैं
तेरे हाथों के गुदगुदाये हम

उम्र भर ढूंढते रहे ख़ुद को
ख़ुद से इक आइना छुपाये हम